रोरिख के चित्रों की भांति गुलाबी कुहरे में लिपटी, नीले रंग में नहाई नीलगिरि पहाड़ियां अपने नाम को सार्थक करती प्रतीत हो रही थीं। हिमालय की पहाड़ियां बेढ़प किस्म की हैं। मैदानों से निकलते ही, अचानक ऊंची पहाड़ियां आ जाती हैं, जो घाटियों व कन्दरायों से भरपूर है। दक्षिण भारत में कोई पर्यटन स्थल इतना सुन्दर नहीं है। अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य को समेटे इन्हीं दबी - छिपी पहाड़ियों की गोद में बसा है एक खूबसूरत पर्वतीय स्थल - ऊटी।
इस सुरम्य स्थल से बहुत सी ऐतिहासिक कथाएं जुड़ी हैं, उनमें से कुछ ही उपलब्ध हैं। वे भी अधिक प्रचलित नहीं हैं। पहले यूरोपीय, जिन्होंने ऊटी के आस पास के जंगलों के बीच से रास्ता बनाते हुए इस क्षेत्र में प्रवेश करने की हिम्मत जुटाई, वह है सन 1902 में पुर्तगाल के कुछ पादरियों का समूह। वे लोग ईसाइयों की बस्ती की खोज में थे। फादर जैकम फरेरी ने इस ठंडे प्रदेश के बारे में सूचना दी। परंतु उन्हें यहां टोडा जनजाति के अतिरिक्त, किसी अन्य जाति के लोग नहीं मिले। इसीलिए वे चुपचाप कालीकट की ओर चले गए।
ऊटी पहुंचने के लिए, मेट्टावलयम से छोटी पहाड़ी रेल से जाना चाहिए, जो कि पहाड़ों के बीच से गुजरती है। यहां पहाड़ी क्षेत्रों में चलने वाली खिलौना गाड़ी दिखाई नहीं देगी। ऊटी रैक भारत का एक मात्र मीटर गेज पहाड़ी रेल मार्ग है। मद्रास (आज का चेन्नई) के तत्कालीन राज्यपाल लार्ड वैनलाॅक की देख - रेख में स्विस तकनीक द्वारा इस रेल मार्ग का निर्माण किया गया। दस साल के अथक प्रयास के बाद यहां से पहली रेल यात्रा आरंभ की गई।
आज, नीलगिरि एक्सप्रेस यहां से रोज सुबह आरंभ होती है। खुशकिस्मती से हमें खिड़की के पास की सीट मिल गई। यात्रा के दौरान पल - पल बदलने वाले मनोरम दृश्य आंखों में बस जाते हैं। हरे - भरे खेत, बीच - बीच में लाल टाइलों वाली छत, झरने - झाड़ियां, हरियाली ही हरियाली। वर्षाें तक ये मनोरम दृश्य पर्यटकों की स्मृति में कैद रहते हैं।
अंग्रेजों के समय में ’ईस्ट इंडिया कंपनी’ के कार्यकर्ता यहां के मौसम से सामंजस्य बैठाने की कोशिश करते थे। गर्मी व आद्रता को दूर करने के लिए वे ठंडे स्थान की खोज में थे। ऐतिहासिक पुस्तकों के अनुसार सन 1818 में चुंगी विभाग के दो कर्मचारियों ने अपने अधिकारी जाॅन सूलीवन को बताया कि किस तरह तबाकू गिरोह की तलाश में भटकते - भटकते उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे वे इडेन गार्डेन (स्वर्ग लोक) पहुंच गए हों।
यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य की तारीफ सुनकर सूलीवन उत्सुकतापूर्वक जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में ही सन 1819 में यहां आ पहुंचा। उसके द्वारा किए गए वर्णन के अनुसार यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य अत्यंत ही मनोरम व सम्मोहित करने वाला था और यह स्थान उनके प्रदेश से अधिक दूरी पर भी नहीं था। यह भूमध्य रेखा से केवल 11 डिग्री पर था।
सन 1823 तक सूलीवन ने सुनियोजित ढंग से यहां अपना स्थायी आवास बनवा लिया था। उसने वहां की टोडा जनजाति के लोगों से एक रूपया प्रति एकड़ के हिसाब से ऐसे मौके पर काफी जमीन खरीद ली, जहां से प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारा जा सके। जमीन की इस खरीद - फरोख्त से उसे काफी लाभ हुआ और बाद में उसने अपनी नौकरी से त्याग पत्र देकर इसी खरीद - फरोख्त को व्यवसाय के रूप में अपना लिया। कुछ लोग उसे ऊटी का संस्थापक मानते हैं, जबकि कुछ को आपत्ति है, क्योंकि उसका उद्देश्य लाभ कमाना था। लेकिन उसमें दूरदर्शिता थी, वह लुटेरा नहीं था, इसलिए उसे ऊटी का संस्थापक माना जा सकता है।
ऊटी का वनस्पति उद्योग पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र है। इस वनस्पति उद्योग की नींव क्यू गार्डेन के श्री जाॅनसन ने रखी। वह अपने साथ इंग्लैण्ड से नाव में जितनी भी किस्मों व जातियों के पेड़ - पौधे ला सकते थे, लाए व इस उद्यान को हर प्रकार से विकसित किया। यहां की लाल मिट्टी अत्यंत समृद्ध है, तभी यहां किसी भी किस्म या जाति का पौधा पनप जाता है तथा विविध प्रकार के फूल - फल भी पैदा किए जा सकते हैं।
बीते दिनों की यादें ऊटी क्लब में जीवंत हो उठती हैं। ऊटी क्लब में कदम रखना विक्टोरियन इंग्लैण्ड की ’टाइम मशीन’ में सवार होने की भांति है। ताश खेलने की मेजों से सजा, ’रमी रूम’ आखेट ट्राफियों से भरा बार, ऊटी के जंगलों में शिकार की तस्वीरों से सुसज्जित कक्ष और एक मात्र बिलियर्ड कक्ष, जहां पर स्नूकर खेलने के नियम लिखे हुए हैं। यही नहीं, यहां की गतिविधियों पर निगाह रखती सूलीवन की तस्वीर भी वहां मौजूद है।
दक्कन में दोड्डा - बेट्टा सबसे ऊंची चोटी है, जिसकी ऊंचाई 8,000 फुट है। यह स्थान शिकार के लिए आरंभ बिन्दु है। किसी समय परी कथाओं की तरह यह स्थान वाइल्ड लाईफ सेन्चुरी था, परंतु शिकारियों की बढ़ती संख्या ने सब खत्म कर दिया। अब यहां कुछ भी नहीं है। दोड्डा - बेट्टा ऊटी से 10 किलोमीटर दूर है।
घने जंगलों में ध्यान से झांकें, हो सकता है, अपने शिकारी समूह के साथ शिकार की खोज में भटकते सर रोजर डे कावरले से आपका आमना - सामना हो जाए। वह लोमड़ी की तलाश में नहीं, गीदड़ की तलाश में भटक रहे थे। सच में, लोमड़ी शिकार के लिए किसी विशेष अनुभव व योग्यता की जरूरत नहीं होती। सिर्फ आपको घुड़सवारी व ’हू - हू’ चिल्लाना आना चाहिए।
’लैंड आॅफ द ब्लैक पैगोडा’ के लेखक लावेल थाॅमस के अनुसार, “ऊटी को पहाड़ों की रानी कहा जाता है। ऐसा कौन कहता है कि हम नहीं जानते।“ शायद यह उपनाम उन जजों व जनरलों द्वारा दिया गया होगा, जो वहां छुट्टियां बिताने के लिए जाते थे। ऊटी के ढ़लानों पर सभी वर्गों के फैशनपरस्त लोग गुलाबी कोट व हैट पहने इंग्लिश लोमड़ी शिकारियों के साथ, घोड़े पर सवार गीदड़ों का शिकार करते हुए मिल जाएंगे। यहां की सड़क बहुत अच्छी है। शिकार का आनंद उठा सकते हैं। एक और खूबसूरत स्थान है, समृद्ध वर्ग और पोलो खेलने वालों के लिए।
नवविवाहितों के घूमने के लिए ऊटी उत्तम स्थान है। इस विषय पर भी बहुत कुछ लिखा गया है। कितने ही सजे संवरे नए जोड़े हैट पहने अपनी ही कल्पना लोक में विचरते रहते हैं। नए जोड़े भिन्न - भिन्न मुद्राओं में हैट व सन ग्लास लगाए खूबसूरत स्थानों पर एक दूसरे के फोटो खींचते मिल जाएंगे। ये हनीमून युगलों व प्रकृति प्रेमियों का हमेशा से प्रिय स्थल रहा है।
सन 1830 में मिलिट्री के नए अधिकारी के आ जाने से सूलीवान परेशान हो गया, क्योंकि वह उससे सहमत नहीं था। दोनों में कई बार झड़प भी हुई। लेकिन उसने ऊटी में अत्यंत सुंदर झील के निर्माण में जो योगदान दिया, वह अविस्मरणीय है। उसने झील में अद्भुत व विलक्षण पक्षियों को बसाया। एक पक्षी की चर्चा करना जरूरी है। ये पक्षी बतख की तरह तैरते हैं, कबूतर की तरह दिखते हैं। ये ’पानी वाली मुर्गी’ कहलाते हैं।
यदि आप आॅफ सीजन अर्थात सर्दियों में पहाड़ पर जाना पसंद करते है, तो भी यहां का प्राकृतिक सौंदर्य एक अलग ही सुरम्यता व आकर्षण लिए हुए दिखाई देगा। सर्दियों में यहां भीड़ - भाड़, शोरगुल व पर्यटकों का आना भी कम होता है। दूसरे उस मौसम में प्रकृति का छिपा हुआ सौंदर्य वादियों में अलग ही छटा बिखेरता हुआ दिखाई देता है।
पहले एरेका नट फार्म, फिर काफी बागान, चाय के बागान से गुजरते हुए खुशकिस्मती से आपको वन्य नीलगिरि प्राणी ’टहर’ की एक झलक दिखाई दे सकती है। यह इस वन्य क्षेत्र में दुर्लभ जंगली बकरे की संतान है, जिनकी संख्या अब घटकर 2,200 हो चुकी है। यही नहीं इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के रंग - बिरंगे पक्षी भी एक लय में गाते - गुनगुनाते मिलेंगे।
यहां पर घूमते हुए पक्षियों के बच्चे सड़क के आर - पार खेलते हुए मिल जाते हैं। पुराने समय में जब यहां शिकारी, शिकार किया करते थे, तो वे बच्चे आसानी से उनका शिकार बन जाते थे, परंतु अब उनके संरक्षण की व्यवस्था कर दी गई है।
चारांे ओर हरितिमा -ही - हरितिमा, विभिन्न प्रकार के देशी - विदेशी पेड़ - पौधे, पर्यटकों को मुग्ध कर देते हैं और यदि आप थोड़ी देर के लिए रूकेंगे, तो प्रत्येक झाड़ी, प्रत्येक पेड़ में से पहाड़ी बुलबुल की मीठी - मीठी आवाज सुनाई देगी। शायद ही ऐसा वृक्ष मिलेगा, जहां बुलबुल का जोड़ा न बैठा हो। कीड़े - मकौड़े व जंगली फलों की खोज में एक पेड़ से दूसरे पेड़ की शाखाओं पर फुदकते रहते हैं ये पक्षी।
यदि आप अब भी अपनी इन्द्रियों को और संतुष्ट करना चाहते हैं, तो पास ही यूकेलिप्टस आयल एक्सट्रैक्शन प्लान्ट को देखने जा सकते हैं। वहां छोटी नाव या डोंगी द्वारा पहुंचा जा सकता है।
सर डेविड लीन ने अपनी प्रसिद्ध फिल्म ’ए पैसेज टू इंडिया’ का रेल दृश्य यहीं पर दर्शाया है। विश्वास करें या न करें, ऊटी को किसी विशेषण की आवश्यकता नहीं है। इसका नैसर्गिक व अप्रतिम छटा ही इसके सौंदर्य की परिचायक है।
ऊटी कैसे जाएं - ऊटी का सबसे निकटतम एअरपोर्ट है कोयम्बटूर जो ऊटी से लगभग 100 किमी की दूरी पर स्थित है। एयरपोर्ट से टैक्सी सर्विस भी मिल जाती है। कोयम्बटूर दक्षिण भारतीय शहर जैसे चेन्नई, बंगलूरू, मदूरई, हैदराबाद इत्यादि से हवाई मार्ग द्वारा जुड़ा है।
मेट्टूपलायम यहां का सबसे निकटतम रेलवे सटेशन है। यहां पर नियमित रूप से चेन्नई एवं कोयम्बटूर से ट्रेनें आती हैं।
ऊटी के लिए मैसूर, बंगलूरू, मदुराई, कन्याकुमारी एवं केरल के कई शहरों से नियमित बस सेवा है।
गणेश सैली
Photo courtesy : world atlas
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