यह कैसा झूट ?

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झूठ अपने द्वारा खरीदी प्रत्येक वस्तु का मूल्य, उसके वास्तविक मूल्य से बढ़ा – चढ़ा कर बताना, मृदुला का स्वभाव बन गया था। दो सौ रूपए की साड़ी चार सौ रूपए की, पांच सौ रूपए की घड़ी आठ सौ रूपए की बताने में उसे जरा भी हिचक नहीं होती थी। जितने अधिक में बात खप जाए।अनावश्यक और निष्फल झूठ बोलने की ऐसी आदत बहुतों का खाना पचाने के लिए आवश्यक होती है। उन्हीं में से एक थी मृदुला भी।पुरानी सहेली ललिता की पुत्री रचिता का विवाह पड़ा। उपहार देने के बारे में मृदुला ने दिमाग दौड़ाया। निश्चय किया एक ड्रेसिंग टेबुल देने का। बाजार में देख परखकर कीमत भी तय कर आई वह – सात सौ रूपए। आदत ने आंका, हजार रूपए की बेझिझक बतायी जा सकती है। ललिता ने जाना तो हिचकी, “अरे, नहीं, इतना महंगा उपहार मत दे। हजार रूपए कम नहीं होते। कोई कम कीमत की चीज दे दे।““कैसी बात करती है ?“ बेहद उदास स्वर था मृदुला का, “रचिता तेरी ही नहीं, मेरी भी बेटी है। कम की चीज देना अच्छा नहीं लगेगा। वह भी तो जाने, उसकी आंटी ने क्या दिया है।“मृदुला की उदारता ने ललिता का संकोच तोड़ा। बोली, “ड्रेसिंग टेबुल तो वह खरीद लाए हैं। तू हजार रूपए खर्च करने पर उतारू है ही, तो एक काम कर। रचिता के लिए मैं दो हजार रूपए का एक खूबसूरत हार देखकर आयी हूं। वैसे हजार तक की ही मेरी सामथ्र्य थी, इसलिए छोड़ आई थी, पर अब तेरे भी हजार मिल जाएंगे तो हार आ जाएगा। ठीक रहेगा न ?“अपने झूठ में फंसी मृृदुला को विवशता में हामी भरनी पड़ी। वह मन ही मन स्वयं को कोसने लगी, पहली और आखिरी बार।                                         

शिशिर विक्रांत। 


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