के॰ पी॰ सक्सेना ।
अब इसमें हमारा क्या कसूर मैडम जी, कि हमें सर्दी बहुत लगती है। यह तो सर्दी लगने की उम्र है। मगर जब भरी जवानी में पसीना छोड़ने के दिन थे, तब भी एक सेंटीमीटर रजाई खिसक जाने पर, ऐंठ कर अंग्रेजी का आठ हो जाते थे और दांत बजाकर हिन्दी गाना अंग्रेजी में गाने लगते थे। घर का कोई सदस्य तुरंत दौड़कर रजाई सही कर देता था और हम घोटाले की रकम जैसे अंदर सुरक्षित दबे पड़े रहते थे।

हमारे परिवार की पुरानी फाइलें देखें आप। सर्दी लगने का यह सिलसिला हमारे खानदान में सन् 1838 से शुरू हुआ, जब दादाजी के पिताजी के लंग्स में सर्दी घुस गई थी और वंश – दर – वंश ट्रांसफर होती चली गई। तब चाय पीने का रिवाज नहीं था और दारू में अदरक उबाल कर पी जाती थी। दारू और अदरक का संयुक्त मोर्चा, थोड़ी सी काली मिर्च के समर्थन से सर्दी दूर रखता था। साल भर की उम्र में, पतली – पतली, अलग रंगों की पांच रजाइयां हमारे ऊपर डाली जाती थी, जैसे भूसे के ढेर में कांच का कीमती बर्तन पैक पड़ा हो। एक भी रजाई जरा सी सरक जाती तो बाबूजी अम्मां को अपनी घनी मूछों तले से डांटते, “कुछ देखती भी हो ? नूरचश्म की गुलाबी रजाई नीचे से सरकी पड़ी है। शर्तिया पांव की तरफ से ठंडक खा जाएगा।“ तड़ से रजाई ठीक करके उस पर पेपरवेट जैसा लोटा रख दिया जाता।

तेरह – चैदह की उम्र में जब मुहल्ले के दूसरे लड़के, दिसंबर में सिर्फ नेकर – बनियान पहने फुटबाल खेलते तो हमें टोपे कम्बल में लपेटकर मैदान के एक कोने में रख दिया जाता कि फुटबाल देखो। सामने एक छोटी सी अंगीठी सुलगती रहती थी। हमारा मन होता था कि खेलें, मगर कम्बल टोपे में अंगीठी लेकर खेलना अलाउड नहीं था। घर से कोई न कोई आकर हर दस मिनट पर यह देख जाता था कि हमारे अंदर किसी तरफ से हवा तो नहीं घुस रही है ? थोड़े और जवान हुए तो शादी – वादी तय हुई। मुकद्दर की मार कि यह मनहूस काम भी दिसंबर में ही होना था। इधर हम कई कई स्वेटरों और बंडियों पर सूट चढ़ाए कांप रहे थे, उधर दुल्हन सिर्फ बनारसी साड़ी और रेशमी ब्लाउज में। हमें गुस्सा सवार हो रहा था कि ससुरालिए इतने कंजूस हैं कि उसे एक लिहाफ नहीं ओढ़ा सकते ? कहीं ठंड में निमोनिया को प्राप्त हो गई तो अगली शादी फिर दिसंबर में करनी पड़ेगी। प्यार – व्यार बाद में, पहले तो घर आते ही हमने उसके वजूद को हड़का दिया कि या तो हर वक्त रजाई ओढ़े रहा करो या हमसे तलाक लेकर कहीं और शादी – शूदी कर लो। तुम्हारी यह बेहद महीन पोशाक देखकर हमें रोमांस नहीं, कंपकंपी छूटती है। हमें रंडवा करने के और भी तरीके हैं। ठंड से ही क्यों ?

अब जो औलादों का सिलसिला शुरू हुआ तो हम दफ्तर से सी एल लेकर उनका टोपा, मफलर, मोजे ठीक करने लगे कि कहीं चूजे ठंड न खा जाएं। बीवी हमें डांटती रहती कि हम बच्चों को अपनी तरह नाजुक बना रहे हैं। हम लिहाफ के अंदर से बगैर मुंह निकाले हुड़क देते, “तुम बड़ी बहादुर हो तो बिकनी पहनकर बर्फ में दौड़ लगाओ। हम अपने बच्चों के सीने पर बलगम नहीं जमा होने देंगे। फटाफट अदरक की चाय बना लो, आज सुबह – सुबह बेहद सर्दी है।“ बीवी घड़ी दिखाती कि दोपहर का डेढ़ बजा है। जब – जब नहाने का मनहूस जिक्र छिड़ता, हम बकरीद के बकरे जैसे कांप उठते। बाथरूम की सारी दरारों छेदों को बंद करके गर्म पानी से कम्बल ओढ़कर, नहाने का घटिया फर्ज पूरा कर लेते। जितनी देर बदन पर धार पड़ती रहती, थरथरा कर तुर्की, अरबी और फ्रेंच में जाने क्या क्या गाते रहते। बीवी को इस सीन में बेहद मजा आता। उसके कथानानुसार सेहत के लिए दोनों वक्त नहाना चाहिए। हम झुंझला कर खीज उठते, “तुम्हें बेवा होने का इतना ही अरमान है तो खाने में संखिया दे दो। ठंड में नहला – नहला कर क्यों मारती हो। जल्दी डेढ़ पग रम दालचीनी से उबालकर दो कि गर्माहट रहे। वरना अब हमें मरने के बाद ही नहलाया जाएगा।“
तो मैडम जी, अब तक हम लेखन में काफी चर्चित हो चले थे। लोग इंटरव्यू वगैरा लेने लगे थे। मगर नवंबर से मार्च तक कोई इंटरव्यू नहीं। हमें पसंद नहीं था कि कोई लिहाफ में कैमरा घुसा कर हमारे थोबड़े का फोटो खींचे और हम टोपे मफलर में बंधे – बंधे इंटरव्यू दें। हमारे बारे में लिखना है तो मई में आओ।
गुजर गया वह वक्त, मैडम जी। तन्हाइयां लेकर उम्र की कगार पर खड़े हैं। जाड़ों भर सिरहाने – पैताने रजाई, कम्बल, मफलर रखा रहता है, मगर वह हमें खिजाने वाली आवाज गायब हो गई जो पूछे, “ठंड तो नहीं लग रही ? रम में दालचीनी ले लो और नहा डालो।“ हाथ उठता है कि उस शैतान की चुटिया खींच लें। मगर आंखें डबडबा कर रह जाती हैं।
अब तो ठंड भी लगती रहे रजाई ओढ़ने का दिल नहीं करता। आप मुझे क्षमा करें , यादें उभर आईं। मुंह अंधरे लगता है कोई कह रहा हो, “सर्दी बहुत बढ़ गई है, टहलने मत जाया करो। बुढ़ापे में ठंड लगते देर नहीं लगती।
हम शेर गुनगुनाने लगते हैं –
गरज कि काट दिए जिंदगी के दिन ए दोस्त,
वह तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में।“